हरि के बदन तन धौं चाहि।
तनक दधि कारन जसोदा इतौ कहा रिसाहि।
लकुट कै डर डरत ऐसैं सजल सोभित डोल।
नील-नीरज-दल मनौ अलि-अंसकनि कृत लोल।
बात बस समृनाल जैसे प्रात पंकज कोस।
नमित मुख इमि अधर सूचत, सकुच मैं कछु रोस।
कतिक गोरस हानि, जाकौं करति है अपमान ।
सूर ऐसे बदन ऊपर वारिऐ तन-प्रान।।350।।