हरि के जन की अति ठकुराई।
महाराज, रिषिराज, राजमुनि, देखत रहे लजाई।
निरभय देह, राज-गढ़ ताकौ, लोक मनन-उतसाहु।
काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, ये भए चोर तैं साहु।
दृढ़ बिस्वास कियौ सिंहासन, तापर बैठै भूप।
हरि-जस विमल छत्र सिर ऊपर, राजत परम अनूप।
हरि-पद-पंकज पियौ प्रेम-रस, ताही कै रँग रातौ।
मंत्री ज्ञान न औसर पावै, कहत बात सकुचातौ।
अर्थ-काम दोउ रहैं दुवारैं, धर्म-मोक्ष सिर नावैं।
बुद्धि-विवेक बिचित्र पौरिया, समय न कबहूँ पावै।
अष्ट महा-सिधि द्वारैं ठाढ़ी, कर जोरे, डर लीन्हे।
छरीदार वैराग विनोदी, झिरकि बाहिरैं कीन्हे।
माया, काल, कछू नहिं ब्यापै यह रस-रीति जो जानै।
सूरदास यह सकल समग्री, प्रभु प्रताप पहिचानै।।40।।