हरि कृपा करै जिहिं, जितै सोई -सूरदास

सूरसागर

अष्टम स्कन्ध

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राग मारू
मोहिनी-रूप, शिव-छलन



हरि कृपा करै जिहिं, जितै सोई, बादि अभिमान जनि करौ गोई।
पाइ सुधि मोहिनी की सदासिव चले, जाइ भगवान सौं कहि सुनाई।
असुर अजितेंद्रि जिहिं देखि मोहित भए, रूप सो मोहि दीजै दिखाई।
हरि कह्यौ, ब्रह्म ब्यापक निराकार सौं मगन तुम, सगुन लै कहा करिहौ?
पुनि कह्यौ, ‘‘विनय मम मानि लीजै प्रभो, प्रभु, उमा देख्यौ चहति, कृपा घरिहौ‘‘?
हँसि कह्मो ,‘‘तुम्है दिखराइहौं रूप वह, करौ विस्राम इस ठोर जाई।
बैठि एकांत जोहन लगे पंथ सिव, मोहिनी रूप कब दै दिखाई।
ह्वै अँतरधान हरि, मोहिनी रूप घरि जाइ बन माहिं दीन्हैं दिखाई।
सूर-सरि किधौ चपला परम सुंदरो, अंग-भूषननि छवि कहि न जाई।
हाव अरु भाव करि चलत चितवत जबै, कौन ऐसौ जो मोहित न होई।
उमा कौ छाँडि अरु, डारि मृगचर्म कौ, जाइकै निकट रहे रुद्र जोई।
रुद्र कौ देखि कै मोहिनी जाल करि, लियौ अँचल रुद्र तब अधिक मोहयौ।
उमाहुँ देखि पुनि ताहि मोहित भई, तासु सम रूप् अपनौ न जोहयौ।
रुद्र तजि धी जब जाइ ताकौ गह्मो, सो चली आपु कौ तब छुड़ाई।
रुद्र को तीर्य खसि के पन्यौ धरनि पर, मीहिनी रूप हरि लियौ दुराई।
देखिकै उमा कौं रुद्र लज्जित भए, कह्यौ मैं कौन काम कीनौ।
इंद्रि-जित हौं कहावत हुतौ, आपु कौ समुझि मन माहिं ह्वै रह्मो खीनौ।
चतुरभुज रूप धरि आइ दरसन दियौ, कह्मौ सिव सोच दीजै बिहाई।
सम तुम्हारे नहीं दूसरौ जगत मैं, कह्मौ तुम रूप तब दियौ दिखाई।
नारि के रूप कौं देखि मोहै न जो, सो नहीं लोक तिहूँ माहिं जायो।
सूर स्वामी सरन रहति माया सदा, को जग जो न कपि ज्यौं नचायौ।।10।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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