जहाँ जहाँ रिषि जाइँ तहाँ तहँ हरि कौ देखै।
कहुँ कछु लीला करत, कहूँ कछु लीला पेखै।।
यो ही सब गृह मैं गए, लह्यौ न मन बिस्राम।
तब ताकौ व्याकुल निरखि, हसि बोले घनस्याम।।
नारद मन का भरम, तोहि एतौ भरमायौ।
मैं ब्यापक सब जगत, वेद चारौ मोहिं गायौ।।
मैं करता मैं भोगता, मो बिनु और न कोई।
जो मोकौ ऐसौ लखै, ताहि भरम नहि होइ।।
बूझौ सब गृह जाइ, सबै जानत मोहि योही।
हरि कौ हमसो प्रीति, अनंत कहुँ जात न क्यौही।।
मैं उदास सब सौ रहौ, यह मम सहज सुभाइ।
ऐसो जानै मोहि जो, मम माया तरि जाइ।।