हरि की लीला कहत न आवै।
कोटि ब्रह्मांड छनहिं मैं नासै, छनही मैं उपजावै।
बालक बच्छ ब्रह्म हरि ले गयौ, ताकौ गर्व नवावै।
ऐसौ पुरुषारथ सुनि जसुमति, खीझति फिरि समुझावै।
सिव सनकादि अंत नकहं पावै, भक्त-बछल कहवावै।
सूरदास प्रभु गोकुल मै, सो, घर-घर गाइ चरावै।।482।।