हरि की एकौ बात न जानी ।
कहौ कत कहँ तज्यौ स्याम कौ, कहति बिकल नँदरानी ।।
अब व्रज सून भयौ गिरिधर बिनु, गोकुल मनि बिलगानी ।
दसरथ प्रान तज्यौ छिन भीतर, बिछुरत सारँगपानी ।।
ठाढ़ी रहैं ठगौरी डारी, बोलति गदगद बानी ।
‘सूरदास’ प्रभु गोकुल तजि गए, मथुरा ही मन मानी ।। 3163 ।।