हरि कर तैं गिरिराज उतारयौ -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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हरि कर तैं गिरिराज उतारयौ। सात दिवस जल प्रलय सम्हारयौ।।
ग्वाल कहत कैसैं गिरि धारयौ। कैसैं सुरपति-गर्ब निवारयौ।।
ब्रज्रायुध जल बरषि सिरान्यौ। परयौ चरन जब प्रभु करि जान्यौ।।
हम सँग सदा रहत हैं ऐसैं। यह करतूति करत तुम कैसैं।।
हम हिलि-मिलि तुम गाइ चरावत। नंद-जसोदा-सुबन कहावत।।
देखि रही सब घोष कुमारी। कोटि काम छवि पर बलिहारी।।
कर जोरति रबि गोद पसारैं। गिरिवरघर पति होहिं हमारैं।।
ऐसौ गिरि गोबर्धन भारी। कब लीन्हौ कब धरयौ उतारी।।
तनक तनक भुज तनक कन्‍हाई। यह कहि उठी जसोदा माई।।
कैसैं परबत लियौ उचकाई। भुज चाँपति चूमति बलि जाई।।
बारम्बार निरखि पछिताई। हँसत देखि ठाढ़े बल भाई।।
इनको महिमा काहु न पाई। गिरिवर धरयौ यहै बहुताई।।
इक इक रोम कोटि ब्रह्मंडा। रबि, ससि, धरनौ, घर नव खंडा।।
इहिं ब्रज जन्म लियौ कै बारा। जहाँ तहाँ जल-थल-अवतारा।।
प्रगट होत भक्तनि के काजा। ब्रह्म कीट सम सबके राजा।।
जहँ जहँ गाढ़ परै तहै आवैं। गरुड़ छाँड़ि ता सन्मुख धावै।।
ब्रजही हैं नित करन बिहारन। जसुमति-भाव-भक्ति-हित-कारन।।
यह लीला इनकौ अति भावै। देह धरत पुनि-पुनि प्रगटावै।।
नैंकु तजत नहिं ब्रज-नर-नारी। इनकैं सुख गिरि धरत मुरारी।।
गर्बवंत सुरपति चढ़ि आयौ। बाम करज गिरि टेकि दिखायौ।।
ऐसे हैं प्रभु गर्ब-प्रहारी। मुख चूमति जसुमति महतारी।।
यह लीला जो नितप्रति गावैं। आपुन सिखि औरनि सिखरावैं।।
भक्ति मुक्ति की केतिक आसा। सदा रहत हरि तिनकै पासा।।
चतुरानन जाकौ जस गानै। सेस सहस मुख जाहि बखानै।।
आदि अंत कोऊ नहिं पावै। जाकौ निगम नेति नित गावै।।
सूरदास प्रभु सबके स्वामी। सरन राखि मोहि अंतरजामी।।951।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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