हरि अक्रूर हरि हृदय लायौ।
मिले तिहि भाव जो भाव चेत्यौ चित, भक्तवच्छल नाम तब कहायौ।।
कुसल बूझत प्रस्न, बचन अमृत रसन, स्रवन सुनि पुलक अँग अंग कीन्हौ।
चितै आनन चारु बुद्धि उर बिस्तार, दनुज अब दलौ यह ज्वाब दीन्हौ।।
भेद ही भेद सब दैत बानी कही, तुरत बोले हेत इहै बाकै।
'सूर' भुज फरकि, मन नैन उत्साह लै, धरनि उद्धार हित बसी ताकै।।2953।।