हरि-हरि-हरि सुमिरौ सब कोइ2 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग बिलावल


तुम निज रूप इहिं भाँति छिपायो। काठ माझ ज्यों अगिनि दुरायो।।
वसुदेव तुमको जानत नाहिं। और लोग विषुरे किहिं माहि।।
कोउ पिता पति कोऊ जानति। कोऊ सत्रु मित्र करि मानत।।
सर्व असँग तुम सर्व अधार। तुम्हें भजे सो उतरे पार।।
जैसे नींद माहिं कोउ होइ। बहु विधि सपनौ पावै सोइ।।
पै तिहिं उहाँ न कछू सँभार। किहि देखत को देखनहार।।
यौ जे रहे विषय-रस भोइ। तिनकी बुद्धि सुद्ध नहिं होइ।।
जापर कृपा तुम्हारी होइ। रूप तुम्हारा जानै सोइ
घट घट माहि तुम्हारी वास। सर्व ठार ज्यो दीप-प्रकास।।
इहि विधि तुमको जानै जोइ। भक्तऽरु ज्ञानी कहिये सोइ।।
नाथ कृपा अब हम पर कीजै। भक्ति आपनी हमको दीजै।।
प्रेम भक्ति बिनु कृपा न होइ। सर्व शास्त्र हम देख्यो जोइ।।
तपसी तुमको तप करि पावै। सुनि भागवत गृही गुन गावै।।
कर्म जोग करि सेवत जोइ। ज्यो सेवै त्यो ही गति होइ।।
ऋषि इह विधि हरि के गुन गाइ। कह्यो होइ आज्ञा जदुराइ।।
हरि तिनकी पुनि पूजा करी। कीरति सकल जगत बिस्तरी।।
वेद, पुरान सबनि कौ सार। व्यास कह्यो भागवत विचार।।
बिनु हरि नाम नहीं उद्धार। ‘सूर’ जानि यह भजी मुरार।। 4298।।

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