हरि-गुन-कथा अपार2 -सूरदास

सूरसागर

तृतीय स्कन्ध

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राग धनाश्री
जय-विजय की कथा



कस्यप की दिति नारि, गर्भ ताकैं दोउ आए।
तिनकौं तेज-प्रताप, देवतनि बहु दुख पाए।
गर्भ माहिं सत वर्ष रहि, प्रगट भए पुनि आइ।
तिन दोउनि कौं देखि कै, सुर सब गए डराइ।
हिरन्याच्छ इक भयौ, हिरनकस्यप भयौ दूजौ।
तिनके बल कौं इन्द्र, बरुन, कोऊ नहिं पूजौ।
हिरन्याच्छ तब पृथी कौं, लै राख्यौ पाताल।
ब्रह्मा बिनती करि कह्यौ, दीनबंधु गोपाल।
तुम बिनु द्वितिया और कौन, जो असुर सँहारै।
तुम बिनु करुनासिंधु, और को पृथी उधारै?
तब हरि धरि बाराह-बपु, ल्याए पृथी उठाइ।
हिरन्याच्छ लै कर गदा, तुरतहिं पहुँच्यौ जाइ।
असुर क्रोध ह्वैं कह्यौ, बहुत तुम असुर सँहारे।
अब लैहौं वह दाउँ, छाँडि़हौं नहिं बिन मारे।
यह कहिकै मारी गदा, हरि जू ताहि सम्हारि।
गदा - युद्ध तासौं कियो, असुर न मानै हारि।
तब ब्रह्मा करि बिनय कह्यौ, हरि, याहि सँहारौ।
तुम तौ लीला करत, सुरनि मन परयौ खँभारौ।
मरयौ ताहि प्रचारि हरि, सुर नर भयौ हुलास।
सूरदास के प्रभु बहुरि गए बैकुंठ-निवास।।11।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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