हरषे नंद टेरत महरि।
आइ सुत-मुख देखि आतुर, डारि दै दघि-डहरि।
मथति दधि जसुमति मथानी, धुनि रही घर-घहरि।
स्रवन सुनति न महर-बातैं, जहाँ-तहँ गइ चहरि।
यह सुनत तब मातु धाई, गिरे जाने झहरि।
हँसत नँद-मुख देखि धीरज तब करयौ ज्यौ ठहरि।
स्याम उलठे परे देखे, बढ़ी सोभा लहरि।
सूर प्रभु कर सेज टेकत, कबहुँ टेकत ढहरि।।67।।