हरषी निरखि रूप अपार।
गह्यौ कर सौ सदन ल्याई, जानि गोपकुमार।।
स्याम मोकौ बोलि पठई, कहत है यह लाल।
भवन लै इनि भेद बूझौ, सुनौ बचन रसाल।।
हृदय आनंद भई बाला, प्रेमरस बेहाल।
कुवँरि अंतःपुर गई लै, रच्यौ हरि तहँ ख्याल।।
तरुन ह्वै कर उरज परसे, दियौ अंचल डारि।
'सूर' प्रभु हँसि लई प्यारी, भुजनि अंकम धारि।।2721।।