हम देखे इहि भाँति गुपाल।
छद कपट कछू जानति नाहिन, सूधो है ब्रज की सब बाल।।
झूठी की साँची नहि भापै, साँची झूठी कबहु न होइ।
साँची की झूठी करि डारै, यह सोई जानै धनि जोइ।।
इतननि मैं दुराव कछु नाही, नाही भेदाभेद बिचार।
‘सूरदास’ जे झूठी मिलवै, तिनकी गति जानै करतार।।1778।।