हम तौ तबहि तै जोग लियौ।
जबही तै मधुकर मधुबन कौ, मोहन गौन कियौ।।
रहित सनेह सिरोरूह सब तन, श्री खंड भसम चढ़ाए।
पहिरि मेखला चीर पुरातन, फिरि फिरि फेरि सियाए।।
श्रुति ताटक मेलि मुद्रावलि, अवधि अधार अधारी।
दरसन भिच्छा माँगत टोलति, लोचन पात्र पसारी।।
बाँधे वेनु कठ सिगा, पिय, सुमिरि सुमिरि गुन गावत।
करतल बेत दंड डर डरत न, सुनत स्याम दुख धावत।।
रहत जु चित्त उदास फिरति, बन बीथिनि दिन अरु राति।
कारक आवत कुटुंब जातरा, सोऊ अब न सुहाति।।
भोग भुगति भूलै नहिं भावत, भरी विरह वैराग।
गोरख सब्द पुकारत आरत, रस रसना अनुराग।।
भोगी को देखत इहि ब्रज मैं, जोग देन जिहि आए।
जानी सिद्धि तुम्हारे सिध की, जिन तुम इहाँ पठाए।।
परम गुरु रतिनाथ हाथ सिर, दियौ मत्र उपदेस।
चतुर चेटकी मयुरानाथ सौ, जाइ करौ आदेस।।
‘सूर’ सुमति प्रभु तुमहि लखायौ, सोई हमरै ध्यान।
अलि चलि औरै ठौर दिखावहु, अपनौ फोकट ज्ञान।।3963।।