‘हम तैं बिदुर कहा है नीकौं ?
’जाकैं रुचि सौं भोजन कीन्हौ, कहियत सुत दासी कौ।‘
द्वै बिधि भौजन कीजै राजा, बिपति परैं कै प्रीति।
तेरैं प्रीति न मोहिं आपदा, यहै बड़ी बिपरीति।
ऊँचे मंदिर कौन काम के, कनक-कलस जो चढ़ाए।
भक्त–भवन मैं हौं जु बसत हौं, जद्यपि तृन करि छाए।
अंतरजामी नाउँ हमारौ, हौं अंतर को जानौं।
‘तदपि सूर मैं भक्तबछल हौं, भक्तनि हाथ बिकानौ।।243।।