हम अलि कैसे कै पतियाहि।
बचन तुम्हारे हृदय न आवत, क्यौ करि धीर धराहिं।।
बपु आकार बेष नहिं जाकै, कौन ठौर मन लागै।
क्यौ करि रहै कंठ मैं मनियाँ, बिना पिरोये धागै।।
तुमही कहत आहि वह निरगुन, कहा सरै तिहिं काज।
‘सूरजदास’ सगुन मिलि मोहन, रोम रोम सुख राज।।3978।।