हमें ऐसा बल दो भगवान!
जिससे कभी समीप न आयें पाप-ताप बलवान॥
पर-सुख-हित-निमित्त निज सुखका हो स्वाभाविक त्याग।
बढ़ते रहें पवित्र भाव, हो प्रभु-पदमें अनुराग॥
भोगों में न रहे रञ्चकभर मेरापन अभिमान।
बनी रहे स्मृति सदा तुम्हारी पावन मधुर महान॥
लीला-गुण, शुचि नाम तुम्हारा हों जीवन-आधार।
रोम-रोमसे निकले सदा तुम्हारी जय-जयकार॥