हमही पर पिय रूसे हौ।
बोलत नही मूक क्यो ह्वै रहे, अँग रँगहीन कछू से हौ।।
तब निरखत औरहि हित हमसो, कोधौ कहुँ तुम दूसे हौ।
तब हँसि मिलत आजु कछु औरहि, भए निठुरई पूसे हौ।।
डगमगात पग उतहिं परत है, चित चंचल उत हूसे हौ।
'सूरदास' प्रभु साँच भाषिये, तिया कौन बल मूसे हौ।।2691।।