स्‍वपचहु स्त्रेष्‍ट होत पद सेवत -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग धनाश्री




स्‍वपचहु स्त्रेष्‍ट होत पद सेवत, बिनु गोपाल द्विअ-जनम न भावै।
बाद-बिवाद, जज्ञ-ब्रत-साधन, कितहूँ जाइ, जनम डहकावै।
होइ अटल जगदीस-भजन मैं, अनायास चारिहुँ फल पावै।
कहूँ ठौर नहिं चरन-कमल बिनु, भृंगी ज्‍यौं दसहूँ दिसि धावै।
सूरदास प्रभु संत-समागम, आनँद अभत निसान बजावै।।233।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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