स्रु तिनि हित हरि मच्छ रूप धारयौ2 -सूरदास

सूरसागर

अष्टम स्कन्ध

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राग मारू
मत्स्य अवतार



पुनि कहौ, मत्स्य हरि अब कहाँ पाइयै, रिषिन कह्यौ, ध्यान चित माहिं धरौ।
मत्स्य अरु सर्प तिहि ठौर परगट भए, बाँधि नृप नाव यौ कहि उचारौ।
ज्यौ म्हाराज या जलधि तै पार कियौ, भव-जलधि पार त्यौ करौ स्वामी।
अहं-ममता हमै सदा लगी रहे, मोह-मद-क्रोध- जुत मंद कामी।
कर्म सुख-हित तहँ दुख नित, तऊ नर मृढ़ नाहीं सँभारत।
करन-कारन महाराज है आप ही, ध्यान प्रभु कौ न मन माहिं धारत।
बिन तुम्हारी कृपा गति नही नरनि को, जानि मोहिं आपनौ कृपा कीजै।
जनम अरु मरन मै सदा दुःखित रहत, देहु मोहिं ज्ञान जिहिं सदा जीजै।
मत्स्य भगवान कह्यौ ज्ञान पुनि नृण्ति सौं ,भयौ, सौ पुरान सब जगत जान्यौ।
लह्यौ नृप ज्ञान, कह्यौ आँखि अब मीचि तू,मत्स्य कह्मो सो नृपति मान्यौ।
आँखि कौं खौलि जब नृपति देख्यौ बहुरि, कह्मो, हरि प्रलय-माया दिखाई।
कह्यौ जो ज्ञान भगवान, सो आनि उर , नृपति निज आयु इहिं विधि बिताई।
बहुरि संखासुरहिं मारि, वेदाऽनि दिए, चतुरमुख विविध अस्तुति सुनाई।
सूर के प्रभू की नित्य लीला नई, सकै कहि कौन, यह कछुक गाई।।16।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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