थे तो पलक उघाड़ो दीनानाथ, मैं हाजिर (नाजिर) कद की खड़ी। (टेर)
साजनिया दुसमन होय बैठ्या, सब नैं लगूँ कड़ी।
तुम बिन साजन कोई नहीं है, डिगी नाव मेरी समँद अड़ी।।1।।
दिन नहिं चैन रैन नहिं निंदरा, सूकूँ खड़ी खड़ी।
बान बिरह का लग्या हिये में, भूलूँ न एक घड़ी।।2।।
पत्थर की तो अहिल्या तारी, बनके बीच पड़ी।
कहा बोझ मीराँ में कहिये, सौ पर एक घड़ी।।3।।[1]