सूर कह्यौ भागवतऽनुसार 3 -सूरदास

सूरसागर

चतुर्थ स्कन्ध

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राग बिलाबल




ब्रह्मा शिव कौं वचन सुनायौ। दच्छ तुम्हारौ मरम न पायौ।
जैसौ कियौ सो तैसी पायौ। अब उहिं चहियै फेरि जिवायौ।
सिव कह्यौ, मेरैं नहिं सत्राई। सती मुएँ यह मन मैं आई।
अब जो तुम्हरी आज्ञा होई। छाँड़ि विलंब करौं मैं सोइ।
ब्रह्मा, विष्नु, रुद्र तह आए। भृगु रिषि केस आपने पाए।
घायल सबै नीक ह्वै गए। सुर-रिषि सबके भाए भए।
दच्छ-सीस जो कुंड मैं जरयौ। ताकै बदलै अज-सिर धरयौ।
महादेव तिहिं फेरि जिवायौ। दच्छ जानि यह सीस नवायौ।
विप्रनि जज्ञ बहुरि विस्तारयौ। वेद भली विधि सौं उच्चारयौ।
जज्ञपुरुष प्रसन्न तब भए। निकसि कुंड तैं दरसन दए।
सुंदर स्याम चतुर्भुज रूप। ग्रीवा कोस्तुभ-माल अनुप।
उठि कै सवहिन माथ नवायौ। दच्छ बहुरि यौं विनय सुनायौ।
मैं अपमान रुद्र कौ कियौ। तब मम जज्ञ सांग नहीं भयौ।
अब मोहिं कृपा कीजियै सोई। फिरि ऐसी दुरबुद्धि न होइ।
बहुरौ भृगु रिषि अस्तुति कीनी। महाराज मम बुधि भई हीनी।
दियौ क्रोध करि सिवहिं सराप। करों कृपा जो मिटै यह दाप।
पुनि सिव ब्रह्मा अस्तुति करी। जज्ञ पुरुष बानी उच्चरी।
दच्छ कियौ सिव कौ अपमान। तातें भई जज्ञ की हान।
विष्पु, रुद्र, विधि, एकहि रूप। इन्हैं जानि मति भिन्न स्वरूप।
जातैं ये परगट भए आइ। ताकों तू मन मैं निज ध्याइ।
यौं कहि पुनि बैकुंठ सिधारे। बिधि, हरि, महादेव सुर सारे।
यहि बिधि जज्ञपुरुष अवतार। सूर कह्यौ भागवतऽनुसार।।5।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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