सुर-बनिता सब कहतिं परस्पर, ब्रजवासी-दासी-समसरि को?
गोपी मगन भई सब गावति, हलरावति सुत लेति महरि कौ।
जो सुख मुनि जन ध्यान न पावत, सो सुख करत नंद सब खरिकौ।
मनि-मुकता-गन करत निछावरि, तुरतहिं देत बिलंब न धरि कौ।
सूर नंद ब्रज-जन पहिरावत, उमँगि चल्यौ सुखसिंधु लहरि कौ।।181।।