सुरभी कान्ह जगाय खरिकहि बल मोहन बैठे हैं हठ री।
पिस्ता दाख बदाम छुहारा खुरमा खाझा गूंझा मठरी।।
घर-घर तै नर नारि मुदित मन गोपी ग्वाल जुरे बहु ठट री।
टेरि टेरि जब सबनि कौं, लै-लै नाम बुलाइ निकट री।।
देति असीस सकल ब्रजमामिनि जसुमति देति हरषि बहु पट री।
सूर रसिक गिरिधर चिरजीवौ नंद महर कौ नागर नट री ।।810।।