सुरभी कान्ह जगाय खरिकहि -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग कान्हरौ



सुरभी कान्ह जगाय खरिकहि बल मोहन बैठे हैं हठ री।
पिस्ता दाख बदाम छुहारा खुरमा खाझा गूंझा मठरी।।
घर-घर तै नर नारि मुदित मन गोपी ग्वाल जुरे बहु ठट री।
टेरि टेरि जब सबनि कौं, लै-लै नाम बुलाइ निकट री।।
देति असीस सकल ब्रजमामिनि जसुमति देति हरषि बहु पट री।
सूर रसिक गिरिधर चिरजीवौ नंद महर कौ नागर नट री ।।810।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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