सुरनि हित हरि कछप-रूप धान्यौ।
मथन करि जलधि, अंमृत निकान्यौ।।
चतुर्भुख त्रिदसपति विनय हरि सौ करी, बलि असुर सौ सुरनि दुःख पायौ।
दीनबंधू , दयाकरन, असरन-सरन, मंत्र यह तिनहिं निज मुख सुनायौ।
बासुकी नेति अरु मंदराचल रई, कमठ मैं आपनी पीठि घारौं।
असुर सौ हेत करि, करौ सागर मथन, तहाँ तैं अमृत कौ पुनि निकारौ।
रतन चौदह तहाँ तै प्रगट होहि तब, असुर कौं सुरा, तुम्है अमृत प्याऊँ।
जीतिहौ तब असुरनि महा बलवंत कौ मरैं नहिं देवता, यौ जिवाऊँ।
इंद्र मिलि सुरनि बलि-पास आए बहुरि उन कहयौ, कहौ किहि काज आए।
त्रिदसपति समुद्र के मथन के बचन जो सकल ताहि कहिकै सुनाए।
बलि कहयौ, बिलंब अब नैंकु नहिं कीजियै, मंदराचल अचल चले धाई।
दोउ इक मंत्र ह्वै जाइ पहुँचे तहाँ कहयौ, अब लीजिए इहि उचाई।
मंदराचल उपारत भयौ स्रम बहुत बहुरि ले चलन कौ जब उठायौ।
सुर-असुर बहुत ता ठोरहीं मरि गए, दुहुनि कौ गर्व यौ हरि नसायौ।
तब दुहुनि ध्यान भगवान कौ धरि कहयौ, बिनु तुम्हारी कृपा गिरि न जाई।
बाम कर सौ पकरि, गरुड़ पर राखि हरि, छीरकैं जलधि तट धन्यौ ल्याई।
कह्मौ भगवान अब बासुकी ल्याइयै, जाइ तिन बासुकी सौ सुनायौ।
मानि भगवंत-आज्ञा सो आयौ तहाँ, नेति करि अचल कौ सिंधु नायी।