सुन्दर-मधुर सदा मैं मुनि-मन को भी करता आकर्षण।
ऋषि-मुनि, मनुज-दनुज-सुर-सबपर करता सदा सुधा-वर्षण॥
वह मैं खिंचा नित्य रहता तव मुख-शशि-सुधा-पान के हेतु।
ललचाता, मैं सदा तरसता, करता भङ्ग स्वयं श्रुति-सेतु॥
जिसके गुण-गण गाते नहीं अघाते अज-भव-शारद-शेष।
वही समुद करता गुण-गान तुम्हारा मैं साग्रह सविशेष॥
जिसकी महिमा का न पा सका अब तक कोई कहीं न अन्त।
वही तुम्हारी महिमा का अनुभव करता अज्ञात, अनन्त॥
जो सब लोक-महेश्वर, अतुलैश्वर्य विश्व-भर्ता-धर्ता।
वह मैं तव पद-सेवनरत सुख-गौरव का अनुभव करता॥
नित्य सच्चिदानन्द-रूप की भी वे वाछित भाव-तरंग।
लहरातीं जब मुझे दीखतीं अति शुचि, पुलकित होते अंग॥
बह जाता मैं उनमें, प्यारी! रहता नहीं भिन्न कुछ तत्त्व।
कौन बता सकता कैसा, क्या अतुल तुम्हारा मर्म महत्त्व॥