सारँग स्यामहिं सुरति कराइ।
पौढ़े होहि जहाँ नँदनंदन, ऊँचे टेरि सुनाइ।।
गइ ग्रीषम पावस रितु आई, सब काहूँ चित लाइ।
तुम बिनु ब्रजवासी यौ डोलै, ज्यौ करिया बिन नाइ।।
तुम्हरौ कहौ मानिहै मोहन, चरण पकरि लै आइ।
अब की बेर ‘सूर’ के प्रभु को, नैननि आनि दिखाइ।। 3333।।