सहज गीता -रामसुखदास पृ. 82

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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पंद्रहवाँ अध्याय

(पुरुषोत्तम योग)

इस संसार में जीव बना हुआ यह आत्मा (जीवात्मा) सदा से मेरा ही अंश है। अतः तत्त्व से यह सदा मुझमें ही स्थित रहता है, मुझसे कभी अलग नहीं हो सकता। परंतु इससे भूल यह होती है कि यह मुझसे विमुख होकर प्रकृति में स्थित मन तथा पाँचों इन्द्रियों को अपना मान लेता है, उनसे अपना संबंध जोड़ लेता है। जैसे वायु इत्र के फोहे से गंध को ग्रहण करके ले जाती है, ऐसे ही शरीर का मालिक बना हुआ जीवात्मा भी जिस शरीर को छोड़ता है, वहाँ से मन सहित इन्द्रियों को (सूक्ष्म और कारण शरीर को) ग्रहण करके फिर दूसरे शरीर में चला जाता है। वहाँ वह मन का आश्रय लेकर श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण- इन पाँचों इन्द्रियों के द्वारा क्रमशः शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध- इन पाँचों विषयों का रागपूर्वक उपभोग करता है। इस प्रकार शरीर को छोड़कर जाते हुए या दूसरे शरीर में स्थित हुए अथवा विषयों को भोगते हुए भी गुणों से युक्त जीवात्मा वास्तव में स्वरूप से निर्लिप्त ही रहता है- इस रहस्य को अज्ञानी मनुष्य नहीं जानते, अपितु ज्ञानरूपी नेत्रों वाले विवेकी पुरुष ही जानते हैं। लगनपूर्वक साधन करने वाले ज्ञानयोगी इस परमात्मतत्त्व का अपने आप में ही अनुभव कर लेते हैं। परंतु जिन्होंने अपना अंतःकरण शुद्ध नहीं किया है अर्थात् जिनके अंतःकरण में सांसारिक भोग व संग्रह का महत्त्व बना हुआ है, ऐसे अविवेकी मनुष्य साधन करने पर भी इस तत्त्व का अनुभव नहीं करते।
सूर्य में आया हुआ जो तेज संपूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है, जो तेज चंद्रमा में है और जो तेज अग्नि में है, उस तेज को तुम मेरा ही जानो। तात्पर्य है कि सूर्य, चंद्र और अग्नि में मैं ही तेजरूप से स्थित होकर संपूर्ण संसार को प्रकाशित करता हूँ। मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्ति से संपूर्ण प्राणियों को धारण करता हूँ और मैं ही रसमय सोम[1] (चंद्र) होकर संपूर्ण वनस्पतियों को पुष्ट करता हूँ। प्राणियों के शरीर में रहने वाला मैं ही प्राण-अपान से युक्त वैश्वानर (जठराग्नि) होकर उनके खाये हुए चार प्रकार के (चबाये गये, निगले गये, चूसे गये और चाटे गये) अन्न को पचाता हूँ। मैं संपूर्ण प्राणियों के हृदय में विशेषरूप से निवास करता हूँ। मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (संशय, भ्रम आदि दोषों का नाश) होता है। संपूर्ण वेदों के द्वारा मैं ही जानने योग्य हूँ। वेदों के यथार्थ तत्त्व का निर्णय करने वाला और वेदों को यथार्थ रूप से जानने वाला भी मैं ही हूँ।

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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104
  1. यहाँ ‘सोम’ शब्द चंद्रलोक का वाचक है, जो सूर्य से भी ऊपर है। नेत्रों से हमें जो दीखता है, वह चंद्रमण्डल है, चंद्रलोक नहीं।

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