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दूसरा अध्याय
(सांख्य योग)
हे कौन्तेय! सृष्टि के संपूर्ण पदार्थ अनुकूलता-प्रतिकूलता के द्वारा सुख-दुख देने वाले और उत्पत्ति विनाशशील तथा आने जाने वाले हैं। हे भारत! उनको तुम सहन करो अर्थात् उनसे ऊँचे उठो; क्योंकि तुम उनको जानने वाले हो, उनसे अलग हो। इसलिए तुम्हें उनके संयोग वियोग को लेकर सुखी-दु:खी नहीं होना चाहिए। जो बुद्धिमान मनुष्य आने-जाने वाले सांसारिक पदार्थों के संयोग वियोग से सुखी दु:खी नहीं होता, वह जीते-जी अमर हो जाता है।
असत्-वस्तु (शरीर संसार) की सत्ता है ही नहीं; उसका सदा ही अभाव है। परंतु सत्-वस्तु (शरीरी)- का कभी अभाव होता ही नहीं, वह सदा ही विद्यमान रहता है। इसलिए तत्त्वज्ञ महापुरुषों को इस बात का अनुभव हो जाता है कि ‘एक सत्-तत्त्व (सत्ता मात्र)- के सिवाय कुछ भी नहीं है। उस अविनाशी सत्-तत्त्व से यह संपूर्ण संसार बर्फ में जलकी तरह व्याप्त है। शरीरों का तो विनाश हो सकता है, पर उस सत्-तत्त्व का (शरीरी)- का विनाश कोई कर सकता ही नहीं। इसलिए हमारी सत्ता शरीर के अधीन नहीं है। हम शरीर से चिपके हुए नहीं हैं। हे अर्जुन! इस प्रकार सत्-असत् का तत्त्व समझकर तुम शोक-चिन्ता छोड़ दो और युद्ध करो।’
जो मनुष्य इस शरीरी को मारने वाला मानता है और जो इसको मरने वाला मानता है, वे दोनों ही बेसमझ हैं। वास्तव में यह शरीरी न तो मारता है और न मारा ही जाता है। कारण कि शरीरी किसी भी क्रिया का कर्ता नहीं है। जन्म लेना, सत्ता वाला दीखना, बदलना, बढ़ना, घटना और मरना- ये छहों विकार शरीर में ही होते हैं, शरीर में नहीं। इसलिए शरीर के न रहने पर हमारा कुछ भी बिगड़ता नहीं। इस प्रकार जानने वाले मनुष्य में (राग-द्वेष पूर्वक) दूसरों का मारने और मरवाने में प्रवृत्ति नहीं होती। जैसे मनुष्य पुराने कपड़ों को छोड़कर दूसरे नये कपड़ों को धारण करता है, ऐसे ही यह शरीरी पुराने शरीरों को छोड़कर दूसरे- नये शरीरों को धारण करता है। पुराना शरीर छोड़ने को ‘मरना’ और नया शरीर धारण करने को ‘जन्मना’ कह देते हैं। जैसे अनेक कपड़े बदलने पर भी हम एक ही रहते हैं, ऐसे ही अनेक योनियों में अनेक शरीर धारण करने पर भी हम स्वयं एक ही (वही के वही) रहते हैं।
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