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तेरहवाँ अध्याय
(क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग)
[शरीर के साथ अपनी एकता मान लेने से ही इच्छा द्वेष आदि विकार पैदा होते हैं और उनका असर अपने पर पड़ता है। अतः भगवान् शरीर से मानी हुई एकता (देहाभिमान)- को मिटाने के लिए ज्ञान के बीस साधनों का वर्णन करते हैं-]
- अपने में श्रेष्ठता का अभिमान न होना,
- अपने में दम्भ (दिखावटीपन) न होना,
- अहिंसा अर्थात् शरीर, मन और वाणी से कभी किसी को किंचिन्मात्र भी दुख न देना,
- दूसरे को क्षमा करने का भाव,
- शरीर, मन और वाणी की सरलता,
- ज्ञान-प्राप्ति के उद्देश्य से गुरु (जीवन्मुक्त महापुरुष) के पास जाकर उनकी सेवा, आज्ञापालन करना,
- शरीर तथा अंतःकरण की शुद्धि,
- अपने उद्देश्य से विचलित न होना,
- मन को वश में करना,
- इंद्रियों के विषयों में राग न होना,
- मैं शरीर हूँ- ऐसा अहंकार न होना,
- वैराग्य के लिए जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और रोग- इन चारों के दुखों पर बार-बार विचार करना, और दुखों के मूल कारण (सुख की इच्छा)- को मिटाना,
- सांसारिक आसक्ति का त्याग करना,
- पुत्र, स्त्री, घर आदि से घनिष्ठ संबंध का त्याग करना,
- अनुकूलता-प्रतिकूलता की प्राप्ति में चित्त का सम रहना,
- संसार के आश्रय का त्याग करके केवल भगवान् का ही आश्रय लेना, भगवान् से ही संबंध जोड़ना
- एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव होना,
- मनुष्य समुदाय में प्रीति, रुचि न होना,
- संसार की स्वतंत्र सत्ता के अभाव का तथा परमात्मा की सत्ता का नित्य-निरंतर मनन करना, और
- सब जगह परमात्मा को ही देखना।
ये बीस साधन देहाभिमान मिटाने वाले होने से 'ज्ञान' नाम से कहे गये हैं। इन साधनों से विपरीत अभिमान, दम्भ, हिंसा आदि जितने दोष हैं, वे सब देहाभिमान बढ़ाने वाले होने से 'अज्ञान' नाम से कहे गये हैं। इस ज्ञान से प्राप्त करने योग्य जो परमात्मतत्त्व है, उसका मैं वर्णन करूँगा, जिसे जानकर मनुष्य को अमरता की अनुभव हो जाता है।
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