सहज गीता -रामसुखदास पृ. 69

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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बारहवाँ अध्याय

(भक्ति योग)

(चौथा प्रकरण-) जो राग, द्वेष, हर्ष तथा शोक- इन चारों विकारों से सर्वथा रहित है और जो न शुभ कर्मों से राग करता है तथा न अशुभ कर्मों से द्वेष ही करता है, ऐसा भक्त मुझे प्रिय है।

(पाँचवा प्रकरण-) जो शत्रु व मित्र में, मान व अपमान में, शरीर की अनुकूलता व प्रतिकूलता में और सुख व दुख में समान भाववाला है, जिसकी प्राणी-पदार्थों में किंचिन्मात्र भी आसक्ति नहीं है, जो निन्दा स्तुति को समान समझने वाला है, जो निरंतर मेरे स्वरूप का मनन करता है, जो जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने या न होने में संतुष्ट रहता है, जिसकी रहने की जगह में तथा शरीर में ममता-आसक्ति नहीं है, और जिसकी बुद्धि मुझमें स्थिर है, ऐसा भक्त मुझे प्रिय है।
[यहाँ पाँच प्रकरणों में भक्तों के अलग-अलग लक्षण बताने का कारण यह है कि साधन प्रणाली परिस्थिति आदि का भेद रहने से भक्तों के स्वभाव में भी थोड़ा बहुत भेद रहता है। ऐसा होने पर भी संसार के संबंध का सर्वथा त्याग और भगवान् में प्रेम भक्तों में समान ही होता है।]
परंतु मुझमें श्रद्धा रखने वाले और मेरे परायण हुए जो साधक भक्त अभी कहे हुए सिद्ध भक्तों के लक्षणों का भलीभाँति सेवन करते हैं, ऐसे साधक भक्त मुझे अत्यंत प्रिय हैं। कारण कि मेरी प्राप्ति न होने पर भी वे मुझ पर श्रद्धा रखते हुए मेरे परायण होते हैं।

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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

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