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दसवाँ अध्याय
(विभूति योग)
दैत्यों में 'प्रह्लाद', गणना करने वालों में 'काल', पशुओं में 'सिंह', पक्षियों में 'गरुड़', पवित्र करने वालों में 'वायु', शस्त्रधारियों में 'राम', जल-जन्तुओं में 'मगर' और नदियों में 'गंगा' मैं हूँ।
हे अर्जुन! जितनी भी सृष्टियाँ उत्पन्न होती हैं, उन सबके आदि, मध्य तथा अंत में मैं ही हूँ। विद्याओं में मनुष्य का कल्याण करने वाली 'अध्यात्मविद्या' और परस्पर शास्त्रार्थ करने वालों का तत्त्व निर्णय के लिए किया जाने वाला 'वाद' मैं हूँ। अक्षरों में 'आकार' और समासों में 'द्वंद्व समास' मैं हूँ। 'अक्षयकाल' अर्थात् काल का भी महाकाल तथा सब ओर मुखवाला 'धाता' अर्थात् सबका पालन-पोषण करने वाला भी मैं ही हूँ। सबका हरण करने वाली 'मृत्यु' और सभी उत्पन्न होने वालों की उपत्ति का हेतु मैं हूँ। स्त्री-जाति में कीर्ति, श्री, वाक् (वाणी), स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा- ये सातों (स्त्रियाँ तथा गुण) मैं हूँ। सामवेद में गायी जाने वाली श्रुतियों में 'बृहत्साम', छन्दों में 'गायत्री', बारह महीनों में 'मार्गशीर्ष' और छः ऋतुओं में 'वसन्त' मैं हूँ। छल करने वालों में 'जूआ', तेजस्वियों में 'तेज', जीतने वालों की 'विजय', निश्चय करने वालों का 'निश्चय' और सात्त्विक मनुष्यों का 'सात्त्विक भाव' मैं हूँ। वृष्णिवंशियों में 'वासुदेव' (मैं), पाण्डवों में 'अर्जुन' (तुम), मुनियों में 'वेदव्यास' और शास्त्रीय सिद्धांतों को ठीक तरह से जानने वाले पंडितों में 'शुक्राचार्य' भी मैं हूँ। दमन करने वालों में 'दण्डनीति', विजय चाहने वालों में 'नीति', गुप्त रखने योग्य भावों में 'मौन' और ज्ञानवानों में 'ज्ञान' मैं ही हूँ। और तो क्या कहूँ, जितने भी प्राणी हैं, उन सबका 'बीज' (मूल कारण) भी मैं ही हूँ; क्योंकि संसार में चर-अचर जो कुछ भी देखने में आता है, वह सब कुछ मैं ही हूँ।
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