सहज गीता -रामसुखदास पृ. 54

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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नौवाँ अध्याय

(राज विद्याराज गुह्य योग)

[कैसा ही जन्म हो, कैसी ही जाति हो और पूर्वजन्म के कितने ही पाप हों, पर भगवान् की भक्ति के मनुष्यमात्र अधिकारी हैं। दुराचारी, पापयोनि, स्त्रियाँ, वैश्य, शूद्र, ब्राह्मण और क्षत्रिय- ये सातों भक्ति में एक हो जाते हैं, इनमें कोई भेद नहीं रहता। जैसे माँ की गोद में जाने के लिए किसी भी बच्चे के लिए मनाही नहीं है; क्योंकि वे बच्चे माँ के ही हैं। ऐसे ही भगवान् का अंश होने से प्राणिमात्र के लिए भगवान् की तरफ चलने में (भगवान की ओर से) कोई मनाही नहीं है। इसलिए भगवान् की तरफ चलने में किसी को कभी किंचिन्मात्र भी निराश नहीं होना चाहिए।]
तुम मेरे भक्त हो जाओ अर्थात् 'मैं केवल भगवान् का हूँ'- इस प्रकार मुझे अपने मान लो, मुझमें ही अपना मन लगाओ, अपनी सब क्रियाओं से मेरा ही पूजन करो और मुझे ही नमस्कार करो अर्थात् मेरे प्रत्येक विधान में प्रसन्न रहो। इस प्रकार अपने-आपको मुझमें लगाकर तथा मेरे परायण होकर तुम मुझे ही प्राप्त हो जाओगे।

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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

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