|
नौवाँ अध्याय
(राज विद्याराज गुह्य योग)
देवताओं आदि के पूजन की अपेक्षा मेरा पूजन बहुत सुगम भी है। मुझमें तल्लीन हुए मनवाला जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल आदि सहजरूप से प्राप्त वस्तु को प्रेमपूर्वक मेरे अर्पण करता है, उसे मैं ग्रहण कर लेता हूँ; क्योंकि मैं प्रेम का भूखा हूँ, वस्तु का नहीं। इसलिए हे कुन्तीपुत्र! तुम जो कुछ करते हो, जो कुछ भोजन करते हो, जो कुछ दान देते हो और जो कुछ तप करते हो, वह सब मेरे अर्पण कर दो। इस प्रकार सब पदार्थ और क्रियाएँ मेरे अर्पण करने से तुम संपूर्ण कर्मों के बंधन से तथा अनन्त जन्मों के शुभ और अशुभ कर्मों के सुख-दुख रूप फल से मुक्त हो जाओगे। तात्पर्य है कि अपने सहित सब कुछ मेरे अर्पण करने से तुम समस्त बंधनों से छूटकर मुझे प्राप्त हो जाओगे।
मैं संपूर्ण प्राणियों में समान हूँ। उन प्राणियों में मेरा न तो किसी में राग है और न किसी में द्वेष है। परंतु जो प्रेमपूर्वक मेरा भजन करते हैं, केवल मुझे ही अपना मानते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें हूँ अर्थात् मैं उनमें विशेषरूप से प्रकट हूँ।
यदि कोई दुराचारी से दुराचारी मनुष्य भी ‘मैं भगवान् का हूँ और भगवान् मेरे हैं’- इस प्रकार अनन्यभक्त होकर मेरा भजन करता है, उसे भी साधु ही मानना चाहिए। कारण कि उसने दृढ़ता से यह निश्चय कर लिया है कि अब मुझे केवल परमात्मा की तरफ ही चलना है। इस दृढ़ निश्चय के कारण वह बहुत जल्दी धर्मात्मा हो जाता है और उसे सदा रहने वाली शान्ति प्राप्त हो जाती है। हे कुन्तीनन्दन! मेरे भक्त का पतन नहीं होता- ऐसी तुम प्रतिज्ञा करो; क्योंकि तुम भक्त हो और भक्त की प्रतिज्ञा को मैं टाल नहीं सकता। तात्पर्य है कि दुराचारी तो मेरा भक्त बन सकता है, पर भक्त कभी दुराचारी नहीं बन सकता।
हे पृथानन्दन! पशु-पक्षी, असुर-राक्षस आदि पापयोनिवाले जीव और स्त्रियाँ, वैश्य तथा शूद्र- ये सभी मेरे सर्वथा शरण होकर निःसंदेह परम गति को प्राप्त हो जाते हैं। फिर जो पवित्र आचरणों वाले ब्राह्मण और ऋषि स्वरूप क्षत्रिय हैं, वे मेरे भक्त होकर परमगति को प्राप्त हो जायँ, इसमें तो कहना ही क्या है! इसलिए नाशवान् तथा सुख से रहित इस मनुष्यशरीर में आकर तुम मेरा भजन करो।
|
|