सहज गीता -रामसुखदास पृ. 5

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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पहला अध्याय

(अर्जुन विषाद योग)

और बुद्धि तामसी हो जाती है, तब कुल की स्त्रियाँ व्यभिचारिणी हो जाती हैं। व्यभिचार के कारण उनसे वर्णसंकर[1] संतानें पैदा होती है। वर्णसंकर संतान में धार्मिक बुद्धि नहीं होती। वह कुल का नाश करने वालों को तथा पूरे कुल को भी नरकों में ले जाने वाला होता है। अपने पूर्वजों के प्रति आदर बुद्धि न होने से उसके द्वारा पितरों को पिण्ड पानी भी नहीं मिलता, जिससे उनका अपने स्थान से पतन हो जाता है। इस तरह वर्णसंकर पैदा करने वाले दोषों से कुलघातियों के वर्णधर्म नष्ट हो जाते हैं। हे जनार्दन! जिनके कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं, उनको बहुत समय तक नरकों का कष्ट भोगना पड़ता है। यह बड़े आश्चर्य की तथा दुख की बात है कि धर्म-अधर्म को, पाप-पुण्य को जानने वाले होने पर भी हमलोग अनजान आदमी की तरह राज्य और सुख के लोभ से बड़ा भारी पाप करने का विचार कर बैठे हैं। यह हमारे लिए सर्वथा अनुचित है।
उपर्युक्त वचन कहने के बाद अर्जुन अपना अंतिम निर्णय सुनाते हैं- ‘मैं न तो युद्ध करूँगा और न शस्त्र ही उठाऊँगा, फिर भी यदि ये लोग मुझे मार दें तो उनका वह मारना मेरे लिए बड़ा हितकारक होगा। कारण कि मैं युद्ध नहीं करूँगा तो मैं भी पाप से बचूँगा और मेरे कुल का भी नाश नहीं होगा।’
संजय बोले- ऐसा कहकर शोक से अत्यंत व्याकुल हुए अर्जुन ने युद्ध न करने का पक्का निश्चय कर लिया और वे गाण्डीव धनुष तथा बाण का त्याग करके रथ के मध्य भाग में बैठ गये।

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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104
  1. परस्पर विरुद्ध धर्मों का मिश्रण होकर जो बनता है, उसे ‘संकर’ कहते हैं। पुरुष और स्त्री- दोनों अलग-अलग वर्ण के होने पर उनसे जो संतान पैदा होती है, वह ‘वर्णसंकर’ कहलाती है।

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