सहज गीता -रामसुखदास पृ. 46

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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आठवाँ अध्याय

(अक्षर ब्रह्म योग)

हे पार्थ! जो समता रखते हुए मन को बार-बार परमात्मा में लगता है तथा जो एक परमात्मा के सिवाय अन्य किसी का चिन्तन नहीं करता, ऐसा साधक ‘सगुण-निराकार’ परमात्मा चिन्तन करते हुए शरीर छोड़कर उसी परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। वह सगुण निराकार परमात्मा सर्वज्ञ, अनादि, सब पर शासन करने वाला, सूक्ष्म से भी अत्यंत सूक्ष्म, सबका धारण-पोषण करने वाला, अज्ञान से अत्यंत परे और सूर्य की तरह प्रकाश (ज्ञान) स्वरूप है। ऐसे अचिन्त्य परमात्मा का जो चिन्तन करता है, वह भक्तियुक्त मनुष्य अंत समय में मन को परमात्मा में स्थिर करके और योगशक्ति के द्वारा भृकुटी के मध्य में प्राणों को अच्छी तरह से प्रविष्ट करके शरीर छोड़ने पर उस परम दिव्य सगुण-निराकार परमात्मा को ही प्राप्त हो जाता है।
वेदों के ज्ञाता लोग जिस ‘निर्गुण-निराकार’ परमात्मा को अक्षर कहते हैं, वीतराग यति महापुरुष जिसे प्राप्त करते हैं और साधक जिसे प्राप्त करने की इच्छा रखते हुए ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, उस अंतिम तत्त्व को मैं तुम्हारे लिए संक्षेप से तथा अच्छी तरह से कहूँगा। इन्द्रियों के संपूर्ण द्वारों को रोककर, मन का हृदय में निरोध करके और प्राणों को ब्रह्मरन्ध्र (दसवें द्वार)- में रोककर योगधारणा में भलीभाँति स्थित हुआ जो साधक एक अक्षर ब्रह्म ‘ऊँ’ का मानसिक उच्चारण और निर्गुण निराकार का स्मरण करता हुआ शरीर छोड़ता है, वह निर्गुण-निराकार परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।

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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

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