सहज गीता -स्वामी रामसुखदास
पहला अध्याय(अर्जुन विषाद योग)फलस्वरूप वे अपने क्षत्रिय धर्म से विमुख हो गये और उनके भीतर कायरता आ गयी। वे बहुत दुखी होकर भगवान् से कहने लगे- ‘हे कृष्ण! युद्धभूमि में अपने कुटुम्बियों को सामने खड़े देखकर मेरे शरीर के अंग शिथिल हो रहे हैं, मुख सूख रहा है, सारा शरीर थर-थर काँप रहा है तथा शरीर के सभी रोंगटे खड़े हो रहे हैं; मेरे हाथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है, सारे शरीर में जलन हो रही है और मन भ्रमित हो रहा है। इतना ही नहीं, अब मेरे लिए रथ पर खड़े रहना भी मुश्किल हो रहा है। हे केशव! शकुन भी विपरीत हो रहे हैं, जो भविष्य में अनिष्ट की सूचना दे रहे हैं। युद्ध में अपने कुटुम्बियों को मारने से हमें कोई लाभ होता हुआ भी नहीं दिख रहा है। हे कृष्ण! युद्ध में हमारी विजय हो जाय, हमें राज्य मिल जाय या हम सुखी हो जायँ, यह भी मैं नहीं चाहता। ऐसी स्थिति में हे गोविन्द! हमें राज्य मिलने से भोग मिलने से अथवा जीवित रहने से भी क्या लाभ? कारण कि जिन कुटुम्बियों, प्रेमियों, मित्रों के लिए हम राज्य, भोग और सुख चाहते हैं, वे ही लोग अपने प्राणों और धन की आशा को छोड़कर हमारे सामने युद्धभूमि में खड़े हैं। अगर ये कुटुम्बीजन मुझे मारना भी चाहें, तो भी मैं इनको मारना नहीं चाहता। हे मधुसूदन! इस पृथ्वी की तो बात ही क्या है, अगर इनको मारने से मुझे त्रिलोकी का राज्य भी मिलता हो तो भी मैं इनको मारना नहीं चाहता। हे जनार्दन! अगर हम इन कौरवों को मारकर विजय प्राप्त कर लें तो भी हमारे चित्त में कभी प्रसन्नता नहीं होगी। यद्यपि शास्त्र-वचन के अनुसार आततायी[1] को मारने से पाप नहीं लगता तथापि अपने कुटुम्बी होने के कारण इन दुर्योधन आदि आततायियों को मारने से हमें पाप ही लगेगा। इसलिए इन कौरवों को मारना हमारे लिए उचित नहीं है; क्योंकि हे माधव! अपने कुटुम्बियों को मारकर हम कैसे सुखी होंगे?’ |
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अध्याय | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
- ↑ आग लगाने वाला, विष देने वाला, हाथ में शस्त्र लेकर मारने को तैयार हुआ, धन को हरने वाला, जमीन (राज्य) छीनने वाला और स्त्री का हरण करने वाला- ये छः आततायी कहलाते हैं।
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