सहज गीता -रामसुखदास पृ. 38

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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छठा अध्याय

(आत्म संयम योग)

अर्जुन ने पुनः प्रश्न किया- हे कृष्ण! जिसकी साधन में श्रद्धा तो है, पर साधन में तत्परता नहीं है, उसका मन यदि अंत समय में अपनी साधना से हट जाय तो फिर उसकी क्या गति होगी? वह कहाँ जाएगा? हे महाबाहो! उसने संसार का आश्रय तो छोड़ दिया और परमात्मा को प्राप्त नहीं किया, अंत समय में परमात्मा का स्मरण भी नहीं हुआ- इस प्रकार दोनों ओर (संसार और परमार्थ)- से भ्रष्ट हुआ वह साधक छिन्न-भिन्न बादल की तरह नष्ट तो नहीं हो जाता? हे कृष्ण! मेरे इस संदेह को आप ही सर्वथा मिटा सकते हैं; क्योंकि इस संशय को आपके सिवाय दूसरा कोई मिटा ही नहीं सकता।
अर्जुन की शंका का समाधान करने के लिए और साधक मात्र को आश्वासन देने के लिए श्रीभगवान् बोले- हे पार्थ! उसका न तो इस जन्म में पतन होता है और न मरने के बाद ही पतन होता है; क्योंकि हे प्यारे अर्जुन! अपने कल्याण के लिए साधन में लगे हुए किसी भी साधक की दुर्गति नहीं होती। कारण कि जिसके भीतर एक बार साधक के संस्कार पड़ गये हैं, वे संस्कार फिर कभी नष्ट नहीं होते।
योगभ्रष्ट होने वाले साधक दो प्रकार के होते हैं- भोगों की वासना वाले और वासनारहित (वैराग्यवान्)। जिसकी वासना नहीं मिटी है, ऐसा योगभ्रष्ट मरने के बाद स्वर्गादि ऊँचे लोकों में जाता है और वहाँ बहुत वर्षों तक रहने के बाद (भोगों में अरुचि होने पर) पुनः इस लोक में आकर शुद्ध भावों तथा आचरणों वाले, ममतारहित श्रीमानों के घर में जन्म लेता है।

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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

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