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छठा अध्याय
(आत्म संयम योग)
(स्वरूप का ध्यान करने वाले साधक का अनुभव-) सब जगह समरूप से परिपूर्ण अपने स्वरूप का ध्यान करने वाला ज्ञानयोगी अपने स्वरूप (आत्मा)- को संपूर्ण प्राणियों में तथा संपूर्ण प्राणियों को अपने स्वरूप में स्थित देखता है।
(सगुण-साकार का ध्यान करने वाले साधक का अनुभव-) जो भक्त सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदि में मुझे देखता है और मुझमें सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदि को देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता। कारण कि जिसकी मेरे साथ अभिन्नता हो गयी है, ऐसा सिद्ध भक्त संपूर्ण संसार को मेरा ही स्वरूप देखता है। इसलिए वह सब व्यवहार करते हुए भी मुझमें ही रहता है, मुझसे अलग नहीं होता। हे अर्जुन! जैसे साधारण मनुष्य अपने शरीर के सब अंगों का समानरूप से आराम चाहता है, ऐसे ही सब प्राणियों में भगवान् को समान देखने वाला भक्त सभी प्राणियों का समान रूप से आराम चाहता है। अपने शरीर में पीड़ा होने पर उस पीड़ा को दूर करने तथा सुख पहुँचाने में साधारण मनुष्य की जैसी स्वाभाविक चेष्टा होती है, वैसी ही स्वाभाविक चेष्टा दूसरों का दुख दूर करने तथा उन्हें सुख पहुँचाने में भक्त की होती है। ऐसा भक्त मेरी मान्यता में परमयोगी है।
भगवान् के द्वारा ध्यानयोग से समता की प्राप्ति की बात सुनकर अर्जुन बोले- हे मधुसूदन! आपने जिस ध्यानयोग से समता की प्राप्ति बतायी है, मन की चंचलता के कारण उस ध्यानयोग का सिद्ध होना मुझे बहुत कठिन दिखायी देता है। कारण कि हे कृष्ण! मन बहुत ही चंचल, विचलित करने वाला, जिद्दी और बलवान् है। उस मन को रोकना मैं वायु को मुट्ठी में पकड़ने की तरह अत्यंत कठिन मानता हूँ।
अर्जुन की मान्यता सुनकर श्रीभगवान् बोले- हे महाबाहो! तुम्हारा कहना बिलकुल ठीक है कि यह मन बहुत चंचल है और इसका निग्रह करना भी बहुत कठिन है; परंतु हे कौन्तेय! अभ्यास और वैराग्य के द्वारा इसका निग्रह हो जाता है। परंतु ऐसा मत है कि जिसका मन पूरा वश में नहीं है अर्थात् जिसके मन में विषयों का राग है, उसके द्वारा योग सिद्ध होना कठिन है। कारण कि योग की सिद्धि में मन का वश में न होना जितना बाधक है, उतनी मन की चंचलता बाधक नहीं है। इसलिए जो तत्परता से ध्यान योग में लगा हुआ है तथा जिसका मन वश में है, उसे योग की सिद्धि प्राप्त हो सकती है।
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