सहज गीता -रामसुखदास पृ. 25

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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चौथा अध्याय

(ज्ञान कर्म संन्यास योग)

कर्म योग से सिद्ध हुए महापुरुष के द्वारा जो भी कर्म होते हैं, वे सब संकल्प और कामना से रहित होते हैं। कर्मों का संबंध शरीर-संसार के साथ है, स्वरूप के साथ नहीं- इस ज्ञानरूपी अग्नि से उसके संपूर्ण कर्म भस्म हो जाते हैं अर्थात् उन कर्मों में फल देने (बाँधने)-की शक्ति नहीं रहती। ऐसे महापुरुष को ज्ञानीलोग भी बुद्धिमान कहते हैं। तात्पर्य है कि वह कर्मयोगी ज्ञानियों का भी ज्ञानी है। जो कर्म तथा उसके फल में आसक्ति का त्याग कर देता है; जो किसी भी वस्तु, व्यक्ति आदि का आश्रय नहीं लेता; और मन में कोई भी इच्छा न रहने से सदा तृप्त रहता है, वह भलीभाँति सब कर्म करते हुए भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता। उसके सब कर्म अकर्म हो जाते हैं।
जिस (निवृत्ति परायण) कर्मयोगी साधक का शरीर और अंतःकरण भलीभाँति वश में किया हुआ है और जिसने सब प्रकार के संग्रह का तथा भोग-पदार्थों की इच्छा का त्याग कर दिया है, वह केवल शरीर-निर्वाह के लिए खान-पान, शौच-स्नान आदि कर्म करते हुए भी पाप को प्राप्त नहीं होता। जो (प्रवृत्तिपरायण) कर्मयोगी फल की इच्छा के बिना अपने-आप जो कुछ मिल जाय, उसी में संतुष्ट रहता है; और जो कर्मों का फल मिलने अथवा न मिलने में सम रहता है, वह कर्म करते हुए भी उनसे नहीं बँधता। जिस कर्मयोगी की संसार में आसक्ति सर्वथा मिट गयी है, जो स्वाधीन हो गया है, जिसकी बुद्धि में स्वरूप का ज्ञान नित्य-निरन्तर जाग्रत् रहता है अर्थात् जिसे स्वरूप में स्थिति का अनुभव हो गया है, ऐसे निःस्वार्थभाव से केवल दूसरों के हित के लिए कर्म करने वाले कर्मयोगी के संपूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं।


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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

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