सहज गीता -रामसुखदास पृ. 20

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

Prev.png

तीसरा अध्याय

(कर्म योग)

हे अर्जुन! तुम विवेकवती बुद्धि से विचार करके संपूर्ण क्रियाओं और पदार्थों को मेरे कर दो अर्थात् उनको अपने और अपने लिए न मानकर मेरे और मेरे लिए ही मानो। फिर कामना, ममता और संताप से रहित होकर युद्धरूप कर्तव्य कर्म को करो। जो मनुष्य दोष दृष्टि से रहित श्रद्धापूर्वक मेरे इस सिद्धांत के अनुसार चलते हैं अर्थात् संसार में शरीर आदि कुछ भी अपना नहीं है, ऐसा मानते हैं, वे कर्म बंधन से छूट जाते हैं। परंतु जो मनुष्य मेरे इस सिद्धांत में दोषदृष्टि करते हुए इसके अनुसार नहीं चलते, उन सांसारिक विद्याओं में ही रचे-पचे रहने वाले अविवेकी मनुष्यों को नष्ट हुए ही समझना चाहिए। वे जन्म मरण के चक्र में ही पड़े रहेंगे। संपूर्ण प्राणी अपने-अपने राग द्वेषयुक्त स्वभाव के अनुसार कर्म करते हैं। ज्ञानी महापुरुष भी व्यवहार में अपने स्वभाव के अनुसार क्रिया करता है, पर उसका स्वभाव राग-द्वेष से रहित, सर्वथा शुद्ध होता है। इस प्रकार जिसका जैसा स्वभाव है, उसके अनुसार उसे कर्म करने ही पड़ेंगे, इसमें उसका हठ काम नहीं करेगा। प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में अनुकूलता का भाव होने पर मनुष्य का उस विषय में ‘राग’ हो जाता है और प्रतिकूलता का भाव होने पर उसमें ‘द्वेष’ हो जाता है। परंतु मनुष्य को उन राग-द्वेष के वश में होकर उनके अनुसार कोई क्रिया नहीं करनी चाहिए; क्योंकि वे दोनों ही मनुष्य के पारमार्थिक मार्ग में विघ्न डालने वाले शत्रु हैं।
दूसरे वर्ण, आश्रम आदि का धर्म (कर्तव्य) बाहर से कितना ही श्रेष्ठ, सुगम दिखायी दे और अपने वर्ण, आश्रम आदि का धर्म बाहर से कितना ही कम गुणोवाला दिखायी दे, तो भी दूसरे के धर्म की अपेक्षा अपना धर्म श्रेष्ठ और कल्याण करने वाला है। अपने धर्म का पालन करने वाले की यदि मृत्यु भी हो जाय तो उसका कल्याण हो जाता है, पर दूसरे के धर्म का पालन करने से परिणाम में भय की, जन्म-मरण की प्राप्ति होती है।
अपने कर्तव्य का पालन कल्याणकारक और दूसरे के कर्तव्य का पालन भयदायक है- ऐसा जानते हुए भी मनुष्य अपने कर्तव्य का पालन क्यों नहीं करता? इस बात पर अर्जुन ने प्रश्न किया- ‘हे वार्ष्णेय! यद्यपि विचारशील मनुष्य पाप करना नहीं चाहता, फिर भी वह उस पाप में ऐसे लग जाता है, जैसे कोई उसे जबर्दस्ती पाप में लगा रहा हो। वह दूसरा कौन है, जिससे प्रेरित होकर वह पाप करता है?’


Next.png

संबंधित लेख

सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः