सहज गीता -स्वामी रामसुखदास
दूसरा अध्याय(सांख्य योग)(चौथे प्रश्न का उत्तर-) जिसका अंतःकरण अपने वश में है और जिसकी इन्द्रियाँ राग-द्वेष से रहित तथा अपने वश में की हुई हैं, ऐसा साधक इन्द्रियों से विषयों का सेवन करता हुआ अंतःकरण की निर्मलता को प्राप्त हो जाता है। कारण कि वह इन्द्रियों से विषयों का सेवन अर्थात् व्यवहार तो करता है, पर भोग नहीं करता। अंतःकरण निर्मल होने से उसके संपूर्ण दु:ख मिट जाते हैं और वह स्वयं बहुत जल्दी परमात्मा में स्थिर हो जाता है। परंतु जिसका मन और इंद्रियाँ संयमित नहीं हैं, ऐसे असंयमी मनुष्य ‘मुझे केवल परमात्मप्राप्ति ही करनी है’, ऐसी एक निश्चयवाली बुद्धि नहीं होती। एक निश्चयवाली बुद्धि न होने से उस परमात्मा में निष्कामभाव अथवा कर्तव्यपरायणता का भाव भी नहीं होता। निष्कामभाव न होने से उसे शांति नहीं मिलती; क्योंकि अशान्ति का मूल कारण कामना ही है। शान्तिरहित मनुष्य को कभी सुख नहीं मिल सकता।; कारण कि जिस इन्द्रिय का अपने विषय में राग हो जाता है, उस विषय में उसका मन भी खिंच जाता है। जब मन में उस विषय का महत्त्व बैठ जाता है, तब जैसे जल में चलती हुई नौका को वायु हर लेती है, ऐसे वह मन साधक की बुद्धि को हरकर उसे भोगों में लगा देता है, जिससे साधक में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं रहती। इसलिए हे महाबाहो! जिसकी इन्द्रियाँ पूरी तरह से वश में की हुई हैं, जिसके मन और इन्द्रियों में संसार का आकर्षण नहीं रहा है, उसी की बुद्धि स्थिर है। |
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