सहज गीता -रामसुखदास पृ. 12

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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दूसरा अध्याय

(सांख्य योग)

हे धनंजय! तुम आसक्ति का त्याग करके कर्मों की सिद्धि अथवा असिद्धि में सम हो जाओ। फिर उस समता में हरदम स्थित रहते हुए ही कर्तव्य कर्म को करो। इस समता को ही ‘योग’ कहा जाता है। संपूर्ण कर्मों में समता ही श्रेष्ठ है। समता की अपेक्षा सकामभाव से कर्म करना अत्यंत ही निकृष्ट (नीचा) है। कारण कि समता तो परमात्मा की प्राप्ति कराने वाली है, पर सकामकर्म जन्म-मरण देने वाला है। इसलिए हे धनंजय! तुम निरंतर समता में ही स्थित रहो; क्योंकि कर्म, कर्मफल और शरीरादि से संबंध जोड़ने वाले अत्यंत निकृष्ट हैं। समता में स्थित रहने वाला मनुष्य जीवित-अवस्था में ही पाप-पुण्य से रहित हो जाता है। इसलिए तुम समता मं स्थित हो जाओ; क्योंकि कर्मों में योग ही कुशलता है अर्थात् कर्मों की सिद्धि असिद्धि में और उनके फल की प्राप्ति-अप्राप्ति में सम रहना ही कर्मों में कुशलता है, बुद्धमानी है। कर्मों का महत्त्व नहीं है, अपितु योग (समता) का ही महत्त्व है। कारण कि समता वाला बुद्धिमान साधक संसार से असंग होकर जन्म-मरण रूप बंधन से सदा के लिए मुक्त होकर परमपद को प्राप्त हो जाता है।
जिस समय तुम्हारी बुद्धि मोहरूपी दलदल से भलीभाँति तर जाएगी, उसी समय तुम्हें इस लोक के तथा परलोक के संपूर्ण भोगों से वैराग्य हो जाएगा। जिस समय अनेक प्रकार के (द्वैत-अद्वैत आदि) शास्त्रीय मतभेदों से भी तुम्हारी बुद्धि तर जाएगी ‘मुझे केवल परमात्मा को ही प्राप्त करना है’- इस प्रकार परमात्मा में बुद्धि अचल हो जायेगी, उस समय तुम्हें योग की प्राप्ति हो जाएगी अर्थात् तुम्हें परमात्मा के साथ नित्ययोग का अनुभव हो जाएगा।
भगवान् की बात सुनकर अर्जुन भगवान् से चार प्रश्न करते हैं- ‘हे केशव! योग को प्राप्त हुए स्थिर बुद्धिवाले पुरुष के क्या लक्षण होते हैं? वह कैसे बोलता है? कैसे बैठता है? और कैसे चलता (व्यवहार करता) है?’ अर्जुन तो बोलना, चलना आदि क्रियाओं की प्रधानता को लेकर प्रश्न करते हैं, पर भगवान् भाव की प्रधानता को लेकर उत्तर देते हैं; क्योंकि क्रियाओं में भाव ही मुख्य होता है। श्रीभगवान् बोले- (पहले प्रश्न का उत्तर-) हे पार्थ! जिस समय साधक मन में आने वाली संपूर्ण कामनाओं का सर्वथा त्याग कर देता है और अपने-आपमें ही संतुष्ट रहता है, उस समय वह स्थिरबुद्धि कहलाता है।


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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

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