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अठारहवाँ अध्याय
(मोक्ष संन्यास योग)
इस अत्यंत गोपनीय शरणागति वाली बात को तुम असहिष्णु को अर्थात् जिसमें सहनशीलता नहीं है, उसे मत कहना। जिसकी मुझ पर तथा मेरे वचनों पर श्रद्धा भक्ति नहीं है, जो भक्ति का विरोध या खण्डन करता है, उसे कभी मत कहना। जो अहंकार के कारण सुनना नहीं चाहता, उसे भी मत कहना। जो मुझमें दोषदृष्टि करता है, उसे भी मत कहना।
[गीता की शिक्षा से मनुष्यमात्र का प्रत्येक परिस्थिति में सुगमता से कल्याण हो सकता है, इसलिए भगवान् इसके प्रचार की विशेष महिमा कहते हैं-] जो मनुष्य मेरी पराभक्ति पाने का उद्देश्य रखकर इस परम गोपनीय गीता ग्रंथ को मेरे भक्तों में कहेगा, वह निःसंदेह मुझे ही प्राप्त होगा। इतना ही नहीं, उसके समान मेरा अत्यंत प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है और इस भूखण्डल पर उसके समान मेरा दूसरा कोई अति प्रिय होगा भी नहीं! जो मनुष्य हम दोनों के इस धर्ममय संवाद का अध्ययन करेगा, उसके द्वारा भी मैं 'ज्ञानयज्ञ' से पूजित होऊँगा- ऐसा मेरा मत है। इतना ही नहीं, दोषदृष्टि से रहित जो मनुष्य इस गीता ग्रंथ को श्रद्धापूर्वक सुन भी लेगा, वह भी शरीर छूटने पर अपने भाव के अनुसार स्वर्गादि लोकों में अथवा मेरे परमधाम को प्राप्त हो जाएगा।
हे पृथानन्दन! क्या तुमने एकाग्रचित्त से मेरे वचनों को सुना? और हे धनंजय! क्या तुम्हारा अज्ञान से उत्पन्न मोह नष्ट हुआ?
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