सहज गीता -स्वामी रामसुखदास
दूसरा अध्याय(सांख्य योग)[सत्- असत् के विवेक से जिस दतत्त्व की प्राप्ति होती है, उसी तत्त्व की प्राप्ति स्वधर्म पालन से भी हो जाती है, यह बताने के लिए भगवान् कहते हैं-] ‘हे पार्थ! अपने क्षात्रधर्म के अनुसार तुम्हारे लिए युद्ध करना ही कर्तव्य है। इसलिए अपने कर्तव्य से तुम्हें कभी विमुख नहीं होना चाहिए; क्योंकि धर्ममय युद्ध से बढ़कर क्षत्रिय के लिए दूसरा कोई कल्याणकारक कर्म नहीं है। यह युद्ध तुमलोगों को अपने-आप (तुम लोगों की इच्छा के बिना) प्राप्त हुआ है। अपने-आप प्राप्त हुए धर्ममय युद्ध में जो क्षत्रिय शूरवीरता से लड़ते हुए मरता है, उसके लिए स्वर्ग का दरवाजा खुला हुआ रहता है। अतः मेरा धर्ममय युद्ध जिनको प्राप्त हुआ है, उनको बड़ा भाग्यशाली मानना चाहिए। यदि तुम युद्ध नहीं करोगे तो क्षात्रधर्म का त्याग होने से तुम्हें पाप लगेगा और तुम्हारी कीर्ति का भी नाश होगा। सब लोग तुम्हारी कीर्ति का भी नाश होगा। सब लोग तुम्हारी निन्दा करेंगे। सम्मानित मनुष्य के लिए वह अपकीर्ति मरण से भी अधिक दुःखदायी होता है। इसके सिवाय बड़े-बड़े महारथी लोग ऐसा मानेंगे कि अर्जुन युद्ध से डर गया है। इस प्रकार जिनकी दृष्टि में तुम बहुत आदरणीय हो चुके हो, उनक दृष्टि में तुम गिर जाओगे। इसके सिवाय तुम्हारे शत्रुलोग तुम्हारे सामर्थ्य की निन्दा करते हुए न कहने योग्य बातें कहेंगे। इससे बढ़कर तुम्हारे लिए और दुख की बात क्या होगी? अतः युद्ध करने में लाभ ही लाभ है। यदि युद्ध में तुम मारे भी जाओगे तो स्वर्ग चले जाओगे और यदि तुम्हारी जीत हो जाएगी तो यहाँ पृथ्वी का राज्य भोगोगे। इस तरह तुम्हारे तो दोनों ही हाथों में लड्डू है। अतः तुम युद्ध के लिए निश्चय करके खड़े हो जाओ।’
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