सहज गीता -रामसुखदास पृ. 10

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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दूसरा अध्याय

(सांख्य योग)

[सत्- असत् के विवेक से जिस दतत्त्व की प्राप्ति होती है, उसी तत्त्व की प्राप्ति स्वधर्म पालन से भी हो जाती है, यह बताने के लिए भगवान् कहते हैं-] ‘हे पार्थ! अपने क्षात्रधर्म के अनुसार तुम्हारे लिए युद्ध करना ही कर्तव्य है। इसलिए अपने कर्तव्य से तुम्हें कभी विमुख नहीं होना चाहिए; क्योंकि धर्ममय युद्ध से बढ़कर क्षत्रिय के लिए दूसरा कोई कल्याणकारक कर्म नहीं है। यह युद्ध तुमलोगों को अपने-आप (तुम लोगों की इच्छा के बिना) प्राप्त हुआ है। अपने-आप प्राप्त हुए धर्ममय युद्ध में जो क्षत्रिय शूरवीरता से लड़ते हुए मरता है, उसके लिए स्वर्ग का दरवाजा खुला हुआ रहता है। अतः मेरा धर्ममय युद्ध जिनको प्राप्त हुआ है, उनको बड़ा भाग्यशाली मानना चाहिए। यदि तुम युद्ध नहीं करोगे तो क्षात्रधर्म का त्याग होने से तुम्हें पाप लगेगा और तुम्हारी कीर्ति का भी नाश होगा। सब लोग तुम्हारी कीर्ति का भी नाश होगा। सब लोग तुम्हारी निन्दा करेंगे। सम्मानित मनुष्य के लिए वह अपकीर्ति मरण से भी अधिक दुःखदायी होता है। इसके सिवाय बड़े-बड़े महारथी लोग ऐसा मानेंगे कि अर्जुन युद्ध से डर गया है। इस प्रकार जिनकी दृष्टि में तुम बहुत आदरणीय हो चुके हो, उनक दृष्टि में तुम गिर जाओगे। इसके सिवाय तुम्हारे शत्रुलोग तुम्हारे सामर्थ्य की निन्दा करते हुए न कहने योग्य बातें कहेंगे। इससे बढ़कर तुम्हारे लिए और दुख की बात क्या होगी? अतः युद्ध करने में लाभ ही लाभ है। यदि युद्ध में तुम मारे भी जाओगे तो स्वर्ग चले जाओगे और यदि तुम्हारी जीत हो जाएगी तो यहाँ पृथ्वी का राज्य भोगोगे। इस तरह तुम्हारे तो दोनों ही हाथों में लड्डू है। अतः तुम युद्ध के लिए निश्चय करके खड़े हो जाओ।’
[भगवान् व्यवहार में परमार्थ की कला बताते हुए अर्जुन से कहते है-] जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख दुख में समता रखकर तुम अपने युद्धरूप कर्तव्य का पालन करो। ऐसा करने से तुम्हें पाप नहीं लगेगा। यह समता ज्ञानयोग और कर्मयोग- दोनों साधनों से प्राप्त की जा सकती है। मैंने ‘ज्ञानयोग’ (शरीर-शरीरी के विवेक) में तो इस समता का वर्णन कर दिया है, अब मैं इसे ‘कर्मयोग’ के विषय में कहता हूँ।
इस समता की चार विशेषताएँ हैं-

  1. समता में स्थित होकर कर्म करने से मनुष्य कर्मों से नहीं बँधता,
  2. इस समता को प्राप्त करने का केवल उद्देश्य हो जाय तो भी उसका नाश नहीं होता,
  3. इसके अनुष्ठानों में यदि कोई भूल भी हो जाय तो उसका उल्टा फल नहीं होता और
  4. समता का थोड़ा सा भी भाव बन जाय तो वह जन्म-मरण रूप महान् भय से रक्षा कर लेता है अर्थात् कल्याण कर देता है।


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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

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