सरन परि मन-बच-कर्म बिचारि -सूरदास

सूरसागर

नवम स्कन्ध

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राग मारू


 
सरन परि मन-बच-कर्म बिचारि।
ऐसौं और कौन त्रिभुवन मैं, जो अब लेइ उबारि।
सुनु सिख कंत, दंत तृन धरि कै, त्यौं परिवार सिधारौ।
परम पुनीत जानकी सँग लै, कुल-कलंक किन टारौ।
ये दससीस चरन पर राखौ, मेटौ सब अपराध।
हैं प्रभु कृपा करन रघुनंदन रिस न गहैं पल आघ।
तोरि धनुष, मुख मोरि नृपनि कौ, सीय स्वयंवर कीनौ।
छिन इक मैं भृगुपति-प्रताप-बल करषि, हृदय धरि लीनौ।
लीला करत कनक-मृग मारयौ, वध्यौ बालि अभिमानी।
सोइ दसरथ-कुलचंद अमित बल, आए सारँगपानी।
जाकैं दल सुग्रीव सुमंत्री, प्रबल जूथपित भारी।
महा सुमट रनजीत पवन-संत, निडर बज्र-वपु-धारी।
करिहै लंक पंक छिन भीतर, बज्र-सिला लै धावै।
कुल-कुटुंब-परिवार सहित तोहिं बाँधत विलम न लावै।
अजहूँ बल जनि करि संकर कौ, मानि वचन हित मेरौ।
जाइ मिलौ कोसल नरेस कौं भ्रात विभीषन तेरौ।
कटक सोर अति घोर दसौं दिसि, दीसति बनचर-भीर ।
सूर समुझि रघुबंस-तिलक दोउ उतरे सागर-तीर॥115॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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