सब दिन एकहिं से नहि होते।
तब अलि ससि सीरौ सब तातौ, भयौ विरह जरि मो तै।।
तब षट मास रास-रस-अंतर, एकहु निमिष न जाने।
अब औरै गति भई कान्ह बिनु, पल पूरन जुग माने।।
कह मति जोग ज्ञान साखा स्रुति, ते किन कहै घनेरे।
अब कछु और सुहाइ ‘सूर’ नहिं, सुमिरि स्याम गुन केरे।।3737।।