सबै रितु औरै लागति आहि।
सुनि सखि वा ब्रजराज बिना सब, फीकौ लागत चाहि।।
वै घन देखि नैन बरषत हैं, पावस गऐ सिरात।
सरद सनेह सँचे सरिता उर, मारग ह्वै जल जात।।
हिम हिमकर देखे उपजत अति, निसा रहतिं इहिं जोग।
सिसिर बिकल काँपत जु कमल उर, सुमिरि स्याम रस भोग।।
निरखि बसंत बिरह बेली तन, वे सुख दुख ह्वै फूलत।
ग्रीषम काम निमिष छाँड़त नहि, देह दसा सब भूलत।।
षट् रितु ह्वै इक ठाम कियौ तनु, उठे त्रिदोष जुरै।
‘सुर' अवधि उपचार आजु लौ, राखे प्रान भुरै ।। 3345 ।।