सखी री चातक मोहिं जियावत।
जैसहि रैनि रटति हौ पिय पिय, वैसहि वह पुनि गावत।।
अतिहि सुकठ, दाह प्रीतम कै, तारू जीभ न लावत।
आपुन पियत सुधा रस अमृत, बोलि बिरहिनी प्यावत।।
यह पंछी जु सहाइ न होतौ, प्रान महा दुख पावत।
जीवन सुफल ‘सूर’ ताही कौ, काज पराए आवत।। 3334।।