सखी री, मुरली लीजै चोरि।
जिनि गुपाल कीन्हे अपनैं बस, प्रीति सबनि की तोरि।
छिन इक घर-भीतर, निसि-बासर, धरत न कबहूँ छोरि।
कबहूँ कर, कबहूँ अधरनि, कटि कबहूँ खोंसत जोरि।
ना जानौं कछु मेलि मोहिनि, राखे अँग-अँग भोरि।
सूरदास प्रभु कौ मन सजनी, बँध्यौ राग की डोरि।।657।।